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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।

अथवा
विरह व्यथा के निरूपण के क्षेत्र में घनानन्द को अनूठी सफलता प्राप्त हुई है, इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
अथवा
"घनानन्द के विरह वर्ण की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
"घनानन्द का विरह वर्णन सरल और अद्वितीय है।' इस कथन की विवेचना कीजिए।
अथवा
"घनानन्द वियोग श्रृंगार के प्रधान कवि हैं।' इस कथन की तर्कपूर्ण व्याख्या कीजिए।
अथवा
घनानन्द के विरह वर्णन की मार्मिकता पर प्रकाश डालिए।
अथवा
प्रेम और विरह के अनन्य कवि के रूप में घनानन्द की कविता की समीक्षा करते हुए समझाइये कि वे रीतिमुक्त कवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं।

उत्तर -

वियोग वर्णन की एक परम्परा रही है। हिन्दी के आरंभिक चरणों से लेकर अत्याधुनिक काल में वियोग दशा के किसी न किसी मार्मिक स्थलों को कविताओं में सिद्धहस्त कवियों ने अंकित किया है। यो तो प्राचीन कवियों को इसके क्षेत्र में अत्यधिक श्रेय और सफलता मिली है, फिर भी रीतिकालीन कवि गण इससे वंचित नहीं किये जा सकते हैं। जिस प्रकार से जायसी सूर, हरिऔध, मैथिलीशरण, मीरा प्रसाद, महादेवी के विरह वर्णन में घनानन्द के विरह वर्णन अत्यन्त भावप्रद और प्रतिष्ठित हुए हैं।

घनानन्द के वियोग वर्णन का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन मनन के उपरान्त महान साहित्य - समीक्षकों ने अपने-अपने विचारों को व्यक्त किया है। घनानन्द का वियोग वर्णन अत्यन्त परिमार्जित और परिनिष्ठित है। वह बहुत ही शुद्ध और सात्विक भावों से परिपूर्ण है। इसमें शालीनता और उत्कृष्टता के भी गुण विद्यमान हैं, यों तो घनानन्द के वियोग वर्णन की अनेक विशेषताएँ हैं, इन विशेषताओं के एकमात्र आधार घनानन्द की अनन्य प्रेमिका सुजान है। इस सुजान के प्रति कवि ने अपने अनेक परस्पर विरोधी भावों को व्यक्त करके अपने सच्चे प्रेम के रुझान को सजीव अभिव्यक्ति प्रदान की है। प्रेयसी सुजान के प्रति कविवर घनानन्द की तड़क - फड़क उदासीनता, मिलन की उत्कृष्ट अभिलाषा, समर्पण की अपार वेदना आदि विरोधाभासों की सच्ची अभिव्यक्ति हुई है। अतः यह कहना सत्य होगा कि घनानन्द जी प्रेम की पीर के पारखी और अनुभवी रचनाकार हैं। कविवर घनानंद का यह प्रेम पीड़ा आत्मानुभव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इसमें कसक और छटपटाहट के साथ-साथ आनन्द और उल्लास है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने कविवर घनानन्द के वियोग पीड़ा की सच्चाई को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है -

"यद्यपि इन्होंने संयोग और वियोग दोनों पक्षों को लिया है, पर वियोग की अन्तर्दशाओं की ओर ही दृष्टि अधिक है। इसी से इनके वियोग सम्बन्धी पद्य ही प्रसिद्ध हैं। वियोग वर्णन भी अधिकतर अंतर्वृत्ति निरूपक हैं, ब्राह्मार्थ निरूपक नहीं, दयानंद ने न तो बिहारी की तरह विरहताप को बाहरी माप से मापा है, न बाहर उछल-कूद दिखाई है, जो कुछ हलचल है, वह भीतर की है, बाहर से वह वियोग प्रशान्त और गम्भीर है, न उसमें बदलना है, न रोज की आग की तरह तपना है, न उछल उछल कर भागना है, उनकी 'मौनमधि पुकार' है।'

 

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने महाकवि घनानन्द के वियोग वर्णन की विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए लिखा है -

"घनानन्द ने विरह के महत्व को भली-भाँति समझा था। इसीलिए प्रेमी के विरह-विदग्ध हृदय तथा इसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अनिर्वचनीय मानसिक व्यापारों का जैसा सुन्दर वर्णन अपनी कविता द्वारा उन्होंने किया है, वैसा बहुत कम कवि कर पाये हैं। घनानन्द की यह विशेषता है कि प्रेमी की दशा अथवा उसकी परिस्थिति का दिग्दर्शन करते समय बहुत से अन्य कवियों की भाँति केवल शब्दाडम्बर का आश्रय नहीं लेते हैं, और न अत्युक्तियों का गाढ़ा रंग चढ़ाकर किसी कोमल भाव को भद्दा बना देते हैं। वे जिस प्रकार हमारी आन्तरिक वेदना के सच्चे रूप को पहचान सकने में निपुण हैं, उसी भांति उसे उपयुक्त शब्दों द्वारा स्वाभाविक ढंग से व्यक्त कर देने में भी कुशल हैं। घनानन्द में प्रेम की पीर का गहन अनुभव है, किन्तु उसे प्रकट करते समय वे आवेश नहीं दिखाते और न उसकी तीव्रता के कारण घबड़ाकर नियमोल्लंघन कर जाते हैं। उनके विरह वर्णन में एक आश्रित का अनुरोध एवं मर्यादित आत्म-निवेदन है, जो अपनी स्वाभाविकता के कारण ही सुनने वाले हृदय को बरबस खींच लेता है।'

डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने घनानन्द के काव्य प्रेम की गूढ़ता को व्यक्त करते हुए अपना यह अभिमत व्यक्त किया है - "घनानन्द का काव्य प्रेम की गूढ़ता से भरा हुआ है। अतृप्ति की गहनता से भरा हुआ है, अन्तर्द्वन्द की अलौकिकता से भरा हुआ है इतना ही नहीं घनानन्द की जितनी तीव्र एवं गहन अनुभूति है, उतनी ही उनकी उत्कृष्ट एवं समृद्ध अभिव्यक्ति भी है क्योंकि घनानन्द का सा उक्ति - वैचित्र्य अन्यत्र देखेन को नहीं मिलता, उनकी जैसी शब्द वैविध्य किसी भी अन्य प्रेमी कवि में नहीं है, उनकी सी लाक्षणिकता अन्यत्र नहीं दिखायी देती निःसन्देह वे जितने प्रेम के धनी थे, उतने ही भाषा के भी धनी थे और उतने ही अभिव्यंजना के भी धनी थे।"

घनानन्द के प्रेम वर्णन के अन्तर्गत यह कहा जा सकता है कि प्रेम की अनिर्वचनीयता का आभास घनानन्द ने वक्रोक्ति के छीटों को फेंकते हुए अत्यन्त सरल और चलते हुए प्रवाह क्रम में लिखा है। कविवर घनानन्द के विरह वर्णन की निम्नलिखित मुख्य विशेषताएँ हैं -

शास्त्रीय दृष्टि से विप्रलंभ शृंगार के चार अंग हैं -

(1) पूर्वराग
(2) मान
(3) प्रवास,
(4) करुण।

इन चारों ही अंगों की घनानन्द काव्य में व्यंजना हुई है

(1) पूर्वराग - प्रिय से संयोग होने से पूर्व उनके गुण श्रवण, चित्र-दर्शन अथवा दर्शन आदि के कारण मिलने की जो उत्कृष्ट इच्छा होती है, उसे पूर्णविराम कहते हैं। इसमें मिलन की अभिलाषा ही प्रबल होती है, इसलिए वेदना का विस्तार इसमें अपेक्षित नहीं होता। यथा -

"रससागर नागर स्याम लखें अभिलाषनि घाट झंझारव हौं।
सुन न सूझत धीर कौ ठौर कहूँ पचि हारि कै लाज सितार हैं।
घनआनन्द एव अचंभो बड़ो गुन हाथ हूँ बूड़ति कासौं कहौं।
उर आवत यौं छवि छाँह ज्यौ हौं ब्रज छैल की मैल सदाई रहौं।'

(2) मान - प्रेम के अनन्तर प्रेमी तथा प्रेमिका का सहज स्वाभाविक तौर पर परस्पर रूठ जाना ही मान है। इस 'मान' में मानसिक धरातल पर दोनों में पारस्परिक बनी रहती है। घनानन्द की कविता में पारस्परिक बनी रहती है। घनानन्द की कविता में मान का चित्रण इस प्रकार है:

"अममानिबोई मनमाति रह्यो अस मौन ही सो कुहु बोलति है।
नानिहारन ओर निहारि रही उर-माँठि त्यौं, अंतर खेलति है॥
रिस संग महा रस रंग बड्यौ जड़ ताइयै मौहन डोलति है।
घनआनन्द जान पिया के लिये कितकौ फिरि बैठी कनोलति है।

इस प्रकार विरोधी सामंजस्यों के बीच पलता हुआ मान प्रेमभाव की वृद्धि में सहायक होकर सामने आता है।

(3) प्रवास - प्रिय के विदेश चले जाने के कारण वियोगिनी की जो दुखमयी स्थिति होती है, वह 'प्रवास' कहलाती है। घनानन्द के काव्य में ही मानो विदेश गयी है, जिसके लिए कवि बराबर तड़पता है। घनानन्द ने अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को गोपी भाव से चित्रित करके जहाँ 'सुजान' को कृष्ण के रूप में चित्रित किया है, वहाँ प्रवास का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। यथा -

"और ते साँझ लौ कानन और निहारति बावरी नेकु न हारति।
सांझ तें औ लौं तारिनि तकिबो तारनि सो इकतार न टारति॥
जो कहूँ भाव तो दीठि परै घनआनन्द आंसुनि औसर गारति।
मोहन-सोहन जोहन की लगीयै रहे आँखिन के उतारति॥"

करुण - नायिका अथवा नायक की मृत्यु के पश्चात् श्री जहाँ संयोग होने की आशा बनी रहती है, करुण वियोग होता है। घनानन्द ने इसका बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है -

"बहुत दिनान एक अवधि आस-पास परे।
खरे अरबनि भरे है उठि जान को।
कहि कहि आतन संदेसो, मनभावन को।
गहि गहि राखत ही दै दै सनमान को॥
झूठो बतियानि की पतयानि से उदास ह्वै वै।
अब न छिप्त घनआनन्द निदान को॥
अधर लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान।
चाहत चलन ये संदेशों लै सुजान को॥'

विरह की अतिशयता प्रिय को मृत्यु के समीप ले आयी है। कैसी विडम्बना है कि प्राण अधरों पर आ लगे हैं?

घनानन्द का विरह भाव रीतिकालीन कवियों का सा लीकबद्ध नहीं है। यह विरह हृदय की टीस, विवशता तथा वियोग की दीनता से ओत-प्रोत है। शम्भु प्रसाद बहुगुना के अनुसार, "प्रेम की यह गहन अनुभूति थी, जिसने घनानन्द की कविता को वेदना की स्वाभाविक हरियाली देकर रीतिकाल की अस्वाभाविकता की मरुभूमि में भटकते पाठक के लिए हरी भूमि के समान आनन्दप्रद बना दिया है।' घनानन्द का काव्य उनके हृदय की सच्ची अनुभूति के रूप में ही है। वे अपनी भावनाओं के कुशल चितेरे थे। भावों को मूर्तिमय बनाकर उन्होंने विरह-चित्रण की अपनी समता का कोई भी रीति-कालीन कवि न रहने दिया है।

अगर हम कविवर घनानंद के वियोग वर्णन के ठोस और मार्मिक स्थलों की पहचान करते हैं तो यह अवश्य देखते हैं कि जिनके विरह वर्णन की विशेषताएँ हृदय की मौन पुकार, विरह वेदना की अधिकता प्रिय की कठोरता अंतर्वृत्तियों के चित्रण, उपालम्भ की प्रधानता, प्रकृति अन्य उद्दीपन, विरहिणी की असहायता, प्रेम की अनन्यता अवर्णनीय वियोग दशा, अंग प्रत्यंग की व्याकुलता सहित विभिन्न प्रकार के सम्प्रेषणीय वियोग पीड़ा से व्यक्ति मथित है। इन वियोग दशाओं की उत्कृष्टता का अवलोकन के माध्यम से हम कवि की वियोग वर्णित विशेषताओं का सही मूल्यांकन कर सकते हैं -

(1) हृदय की मौन पुकार - घनानन्द ने अपने काव्य में जिस विरह का वर्णन किया है, वह केवल बौद्धिक विलास नहीं है। उन्होंने स्वयं उसका अनुभव किया था। उनके विरह में आडम्बर लेशमात्र भी नहीं है, वहाँ तो हृदय की टीस और तड़पन है। उन्होंने अपने विरह को प्रदर्शित करने के लिए चीत्कार भी नहीं किया। वे तो जी मसोस कर तड़पते रहते हैं -

"अंतर आँच उसाम तचै अति,
अंत उसीजै उदेग की आवस।
ज्यौ कहलाय मसोसनि ऊमस,
क्यों हूँ कहूँ सुधरै नहीं ध्यावस!'

(2) विरह वेदना का आधिक्य - विरही अथवा विरहिणी ने अपने वियोग दुःख को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के उपाय किये, किन्तु उसकी विरह वेदना शान्त नहीं होती, वह और अधिक तीव्र होती जाती है। वह विरह वेदना तो प्रिय के सम्मिलन के बिना दूर नहीं हो सकती है -

"भए कागद आव सतै,
घनआनन्द नेह नदी गहरै।
बिन जानि सजीवन कौन हरै,
सजनी विरह - विष की लहरै।'

(3) प्रिय की कठोरता - घनानन्द ने प्रिय की कठोरता का अत्यन्त मार्मिक वर्णन किया है। प्रिय इतना निष्ठुर है कि दया उत्पन्न करने के सम्पूर्ण उपाय व्यर्थ हो चुके हैं, किन्तु प्रिय में प्रेम और दया का भाव उत्पन्न करना परम आवश्यक है, अतः निर्दयी प्रियतम को सदस्य बनाने के लिए उसकी आँखों के सामने कष्ट सहन करना आवश्यक हो गया है। घनानन्द कहते हैं -

"आसा-गुन बाँधि कै, भरोसो सिल धरि छाती,
पूरे पन सिंधु मैं न बूड़त सकाय हौं।
दुःख दव हिय जारि, अन्तर उदेग आँच
रोम-रोम लासिन निरन्तर तचाय हो।'

(4) वियोग की अन्तर्दशा - घनानन्द के विप्रलंभ श्रृंगार में पूर्वराग, मान तथा करुण के अतिरिक्त वियोग की अन्तर्दशाओं का भी वर्णन मिलता है। वियोग की अन्तर्दशाओं का सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन घनानन्द के काव्य की प्रमुख विशेषता है। यहाँ तक कि घनानन्द का वियोग जन्म प्रत्येक छन्द किसी न किसी अन्तर्दशा का द्योतक है। इसका कारण यह है कि घनानन्द का वियोग हृदय-सागर में निरन्तर उठने वाली लहरों जैसा था, जिससे कोई न कोई अन्तर्दशा चित्रित होती ही रहती है। इस दृष्टि से घनानन्द की वियोगजन्य अन्तर्दशाओं की प्रवृत्ति से प्रभावित होकर आचार्य शुक्ल ने लिखा है- "यद्यपि इन्होंने संयोग और वियोग दोनों पक्षों को लिखा है पर वियोग की अन्तर्दशाओं की ओर दृष्टि अधिक है। इसी से इनके वियोग सम्बन्धी पद्य ही अधिक प्रसिद्ध हैं। वियोग वर्णन भी अधिकतर अन्तर्वृत्ति निरूपक है, बाह्यार्थ निरूपक नहीं।

वियोग में वेदना भाव चित्रण की दृष्टि से जिस दस अन्तर्दशाओं का चित्रण होता है वे हैं - अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुण-कथन, उद्वेग, उन्माद, व्याधि, जड़ता तथा मरण।

(5) उपालम्भ की प्रधानता - घनानन्द का विरह वर्णन में कहीं न कहीं अवश्य ही उपालम्भ के भाव या रूप अंकित हुए हैं। इस प्रकार के चित्रण से प्रेम की न केवल परिनिष्ठता ही व्यक्त होती है, अपितु एकनिष्ठता भी प्रकट होती है। इस प्रकार के स्थलों पर प्रेमी के अपने प्रिय के प्रति कपटी, विश्वासघाती, छली, निर्मम आदि उपालम्भीय भाव सामने आये हैं। निष्ठुरता का एक भाव इस प्रकार से कवि ने रखा है -

"घन अति निठुर निदाध पहिचानि डारी,
याही दुख हमै अब लागी हाय-हाय है।
तुम तौ निपट निर्दयी गई, भूलि सुधि,
हमै भूलि खेलनि सो कहूँ न भुलाय है॥
मीठे-मीठे बोल बोलि, ठनी पहिले तौ तब,
अस जिय जारत, कही धौं कौन न्याय है।
सुनी है कै नाही, यह प्रगट कहावति जू,
काहू कलपाय है सु कैसे पाय है।'

(6) प्रकृति सम्बन्धी उद्दीपन - हम यह भली-भाँति जानते हैं कि प्रकृत्ति के विभिन्न उपादान विरह व्यथा को तीव्रता की ओर ले जाने में प्रबल सहायक होते हैं। कविवर घनान्द का विरह-तापशी से तपित और प्रभावित है। इस प्रकार के विरह ताप में काली काली बादलों की घटाओं, बिजली की चमक दमक और पुरवाई हवा के झोकों के प्रवेश अत्यधिक महत्व को लाने जाने वाले हैं। इसी तरह काली कोयल की कू-कू की ध्वनि और गुंजार कलेजे को हिलाकर विरह की आग में झोंकने वाली है तो फूलों की मनभावनी सुगंध बार-बार रोचक बनाने वाली है। इस प्रकार से प्रकृति के ये उपादान विरह वेदना को लेकर चलने में बहुत अधिक सिद्ध हुए हैं। इस प्रकार के प्रकृतिजन्य उपादानों का चित्रण कवि ने करते हुए लिखा है -

"कारी कोई कूकिल। कहां कौ तैर काढ़ति री,
कूकि कूकि अबहीं करेजो किन को रिलै।
पेड़े परे पापी ये कलापी निस धौंस ज्योंही,
चातक, घातक त्यों ही तुहुँ काल फोरि लै।"

(7) विरहिणी की असहायता - विरह-व्यथित विरहिणी विरह ताप से झुलसकर झुलसकर अत्यन्त कातर और दैन्य- मलीन दशा को प्राप्त हो जाती है। वह अत्यन्त असहाय और पराङ्मुखी बन जाती है, कविवर घनानन्द ने विरहिणी की इस स्वाभाविक और सच्ची दशा का भावपूर्ण और सहज रेखांकन किया है -

"कौन सी सस जैये आपु त्यौ न काहू पैये,
सुनो तो चितै ये जग वै या कित कूकिये।
सोचिति समैयी, मति हेरति हिरेयै, उर,
आंसुनि भिजैये, ताप तैये तन सूकिये।
क्यों करि बिरौये, कैसे कहाँ धौं हितैये मन,
बिना जान प्यारे कब जीवन ते चूकिये।
बनी है कठिन महा, मोहि घनआनन्द सों,
मीचौ करि मई आसरो न जित ढूकियै॥

(5) प्रेम की एकनिष्ठता - विरह ताप में प्रेम की एकनिष्ठता तो और ही विरह की ज्वाला को उद्दीप्त करती रहती है। न केवल प्रकृतिजन्य उपादान इस ताप को अधिक तीव्र करते हैं, बल्कि प्रेमी के भी हाव-भाव इसको अधिक करते हैं। महाकवि घनानन्द के विरह चित्र इसी प्रकार के प्रेम की एकनिष्ठता और अनन्यता की दशाओं को दर्शाने में अत्यन्त सफल और प्राणवान सिद्ध हुए हैं। कवि की विरहिणी आठों याम (रात-दिन) अपने प्रिय के मिलन की प्रतीक्षा में तत्पर रहती हैं। उसने यह दृढ़संकल्प कर लिया है कि वह निरन्तर ही अपने प्रिय के दर्शन के अभाव में उसके नाम और क्रियाकलाप व हाव-भावों को स्मरण किया करेगी -

"तेरी बाट हेरत हिराने को पिराने पल,
पाके ये विकल नैना ताहि नापि नापि रे।
हिय में उवेग, आणि लागि रही रात धौस,
तेहि कौं अराधौ, जोग साधो तपि तपि रे॥
जान घनआनन्द यों दुसह दुहेली दसा,
बीच परि-परि प्रान पिसे चपि चपि रे।
जीते ते भई उदास, तऊ है मिलन आस,
जीवहिं जिवाऊँ नाम तेरी जपि जपि रे॥"

(9) अनिर्वचनीय वियोग पीड़ा - कविवर घनानन्द ने अपने विरह के ताप को इस रूप में प्रस्तुत किया है कि उससे वियोग की दशा का पूरा चित्र प्रस्तुत होना असम्भव सा लगता है। अगर इसे पूर्णरूप में समझा जाये, तो केवल वियोगजनित या वियोग पीड़ित हृदय के पटल पर ही विरह पीड़ा के कथन और अनुभव में उतना ही भेद है जितना रात और दिन में है। इस विषय में कवि का कथन है -

"जो दुख देखति हौ घनआनन्द,
रैना - बिना बिन जान सुतन्तर।
जान बेई दिन राति बखाने तैं
जाय परै दिन रात को अन्तर॥'

(10) प्रेम-विषमता जन्य विरह भाव - प्रेम तैषम्य घनानन्द के काव्य में अवतीर्ण होने वाला सर्वप्रमुख भाव है। अनेक बार कवि ने स्वतः अपने प्रेममार्ग की विषमता या विपरीतता का उल्लेख किया है। कारण यह है कि उनका निजी जीवन ही विरोधों और विषमताओं का जीवन रहा था। घनानन्द ने अपने वियोग को पराकाष्ठा तक ले जाने के लिए प्रेम की विषमता के उद्गार गाये हैं। प्रेम में भी विषमता की बात सूरदास के काव्य में प्रमुख रही है। यह विषमता रीति काव्य में विकास पथ की ओर बढ़ी और रीतिमुक्त काव्यधाराओ में आकर अपनी चरम सीमा में पहुँच गयी। इस वैषम्य के हेतु पर प्रकाश डालते हुए, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है "फारसी साहित्य में प्रेम का वैषम्य स्वीकृत है और उर्दू में उस परम्परा का निर्वाह आज तक हो रहा है। पिछले काँटे के कृष्णभक्त कवि और स्वच्छन्द धारा के रीति- मुक्त कवि सूफी संतों और फारसी साहित्य की प्रवृत्ति से प्रभावित हुए हैं, यह असंदिग्ध है। घनानन्द के काव्य में वर्णित वियोग दशा में विषय-प्रेम व्यंजना के कुछ उदाहरण अवलोकनीय हैं -

(क) उजरनि बसी है हमारी आँखियानि देखौ,
        सुतास जहाँ मावते बसत हौ॥'
(ख) "अन्तर मैं बासी पै प्रवासी को सो अन्तर है,
        मेरी नै सुनदैया अपनी यौं न कहौं।'
(ग) "हेत-खेत धूरि चूरि-चूरि सीस पाँव राखि,
        विषम उदेग बान आगे उर ओटिबौ।'
(घ) "जान प्यारे प्राननि बसत पै अनन्दघन,
        विरह-विषम-दशा मूक लौ कहानी है।'
(ङ) "और जे सवाद घनआनन्द विचारे मौन,
        विरह विवस जुर जीतो करयो लगे।

(11) फारसी शैली के प्रभाव - कविवर घनानन्द के विरह वर्णन पर फारसी शैली के प्रभाव परिलक्षित होते हैं। इसके लिए कवि ने फारसी पद्धति को अपनाया है। इससे कवि के विरह-चित्र सूक्ष्म होने के साथ कुछ हल्के और सीमित हो गये हैं। इस विषय में महान आलोचक डॉ. मुरली मनोहर गौड़ का यह कथन है कि - "वियोग वर्णन पर फारसी प्रेम-पद्धति का प्रभाव होने के कारण कुछ हल्कापन आ गया है। घनानन्द ने 'कटाक्ष-कटारी', 'विरह-आरा' आदि का चित्रण भी किया है। इस प्रकार के कथनों में वीभत्सता आ गयी है।" यह मत ठीक है, किन्तु 'प्रेम की पीर को इससे विशेष बल मिला है। कतिपय उदाहरण अवलोकनीय है -

(1) सैन कटारी आसिक उर पर तै भारां झुक झारी है।
(2) चलै सीस पै यौं विरह-आरा।
(3) विरह घायल हियो ज्यों-त्यों सियेंगी।

इस प्रकार की कुछ उक्तियों के होते हुए भी घनानन्द का विरह भाव रीतिकालीन रीतिकवियों के बुद्धि-विलास-सा ऊहात्मक नहीं है, वह हृदय का अनुभूत्यात्मक प्रतिपादन है, अतः उसमें हृदय पक्ष की प्रधानता है, बुद्धि पक्ष गौण है। डॉ. बच्चन सिंह ने रीतिमुक्त कवियों के विषय में उचित ही कहा है- "प्रेम के वियोग पक्ष की प्रधानता के कारण इनकी (रीतिमुक्त) रचनाओं में अन्तरतम की वेदना के उच्छवास निराश का व्याकुल स्तर अधिक सुनायी पड़ता है। फारसी कवियों के प्रभाव ने उनके प्रेम की पीर को तीव्रतर बना दिया है।'

घनानन्द की विरह व्यंजना से प्रभावित होकर परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है कि - "घनानन्द ने विरह के महत्व को भली-भाँति समझा था। इसीलिए प्रेमी के विरह - विदग्ध हृदय तथा इसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अनिर्वचनीय मानसिक हैं व्यापारों का जैसा सुन्दर वर्णन अपनी कविता द्वारा उन्होंने किया है, वैसा बहुत कम कवि कर पाये हैं घनानन्द की यह विशेषता है कि प्रेमी की दशा अथवा उसकी परिस्थिति का दिग्दर्शन करते समय वे बहुत से अन्य कवियों की भाँति केवल शब्दाडम्बर का आश्रय नहीं लेते और न अत्युक्तियों का गाढ़ा रंग चढ़ाकर किसी कोमल भाव को भद्दा बना देते हैं। वे जिस प्रकार हमारी आन्तरिक वेदना के सच्चे रूप को पहचान सकने में निपुण हैं, उसी भाँति उसे उपयुक्त शब्दों द्वारा स्वाभाविक ढंग से व्यक्त कर देने में भी कुशल हैं। घनानन्द में प्रेम की पीर का गहन अनुभव है, किन्तु उसे प्रकट करते समय आवेश नहीं दिखलाते हैं और न उसकी तीव्रता के कारण घबड़ाकर नियमोल्लंघन कर जाते हैं। उसके विरह वर्णन में एक आश्रित का अनुरोध एवं मर्यादित आत्मनिवेदन है, जो अपनी स्वाभाविकता के कारण ही सुनने वाले हृदय को बरबस खींच लेता है।"

कविवर घनानन्द के विरह वर्णन को संक्षेपतः कह सकते हैं कि इससे प्रेम की सच्चाईयां, सात्विकता, शुद्धता और सम्प्रेषणीयता के साथ-साथ सहजता और स्वाभाविकता के आकर्षण विद्यमान हैं। अन्ततः डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के शब्दों में हम इस प्रकार से कहेंगे- "निःसंदेह घनानन्द के विरह में सम्मोहन है, आकर्षण है, अभिव्यंजना और कौशल है और चित्त को द्रवित करने की अपूर्ण क्षमता है। घनानन्द के इस विरह में कहीं भी बौद्धिकता के दर्शन नहीं होते, कहीं भी क्लिष्ट कल्पना दिखाई नहीं होती और कहीं भी दूरारूढ़ भावना दृष्टिगोचर नहीं होती, अपितु सर्वत्र हृदय पक्ष की प्रबलता दिखाई देती है।"

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

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